शिष्य वही है जो समर्पण कर देता है अर्थात जो शीश ही नहीं झुकाता बल्कि सदा सदा के लिए स्वयं झुकने की कला को जान जाता है, झुक जाता है। वास्तव में गुरु तब तक ही बाहर है और केवल देह रूप है जब तक कि समर्पण ना हो और जैसे ही समर्पण से कोई शिष्य होता है वैसे ही गुरु सदा के लिए भीतर प्रकट हो जाता है, देह तो केवल माध्यम है क्योंकि हम बिना देह के समर्पण करेंगे कैसे? देह के माध्यम से समर्पण की शुरुआत मात्र होती है पर जब समर्पण घट जाता है और वो भी बाहर नहीं बल्कि अंतर जगत में, तो उसी क्षण गुरु भीतर प्रकट हो जाता है। गुरु वास्तव में किसी के लिए कोई होता ही तब है जब किसी के भीतर समर्पण की घटना घट जाती है। समर्पण का मतलब सिर्फ इतना ही है कि दे दिया हाथ तेरे हाथ में, अब तू जहां ले चले, जैसे तू रखे, जो तू दे, जो तेरी मर्ज़ी बस आज से तेरे और मेरे बीच में “मैं” भी नहीं। गीता ग्रंथ अपने आप में अद्वितीय उदाहरण है समर्पण का। कृष्ण सामने खड़े हैं अर्जुन के, जीवंत उत्तर देने के लिए लेकिन फिर भी अर्जु...